केशव पंडित (वरिष्ठ पत्रकार) भारत में पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्रकारिता ने न केवल जनजागृति का माध्...
केशव पंडित (वरिष्ठ पत्रकार)
भारत में पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्रकारिता ने न केवल जनजागृति का माध्यम बनकर समाज को एकजुट किया, बल्कि औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार के रूप में भी काम किया। ‘उदन्त मार्तण्ड’ जैसे समाचार पत्रों ने हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी, और भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे पत्रकारों ने इसे साहित्यिक और सामाजिक चेतना से जोड़ा। लेकिन आज, 21वीं सदी में, भारतीय पत्रकारिता एक गंभीर संकट से गुजर रही है। नफरती और घटिया पत्रकारिता के बढ़ते प्रभाव ने न केवल इस पेशे की विश्वसनीयता को कम किया है, बल्कि इसके मूलभूत सिद्धांतों—सत्य, निष्पक्षता और लोकहित—को भी खतरे में डाल दिया है। इस लेख में, हम तर्कों और प्रमाणों के साथ इस बात का विश्लेषण करेंगे कि कैसे नफरती और घटिया पत्रकारिता भारत में पत्रकारिता के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है।
नफरती पत्रकारिता: सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने वाला हथियारनफरती पत्रकारिता, जिसे अंग्रेजी में ‘हेट जर्नलिज्म’ कहा जाता है, आज भारतीय मीडिया का एक प्रमुख चेहरा बन चुकी है। यह पत्रकारिता का वह रूप है जिसमें समाचारों को सनसनीखेज बनाकर, धार्मिक, जातिगत या क्षेत्रीय आधार पर समाज को बांटने का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के लिए, हाल के वर्षों में कुछ समाचार चैनलों और डिजिटल पोर्टलों पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत भरे कंटेंट को बढ़ावा देने के मामले सामने आए हैं। 2020 में दिल्ली दंगों के दौरान कुछ मीडिया हाउसेज ने ऐसी खबरें प्रसारित कीं, जिनमें एक विशेष समुदाय को निशाना बनाकर भड़काऊ सामग्री प्रस्तुत की गई। यह न केवल पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों का उल्लंघन था, बल्कि सामाजिक सौहार्द को भी नुकसान पहुंचाने वाला कृत्य था।प्रमाण के रूप में, हम ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की 2022 की एक रिपोर्ट का उल्लेख कर सकते हैं, जिसमें कहा गया कि भारत में पत्रकारों और ऑनलाइन आलोचकों को सरकारी नीतियों की आलोचना के लिए निशाना बनाया जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि कुछ पत्रकारों को धमकियां दी गईं, और विशेष रूप से महिला पत्रकारों को सोशल मीडिया पर बलात्कार और हत्या जैसी धमकियों का सामना करना पड़ा। यह स्थिति नफरती पत्रकारिता को बढ़ावा देने वाले माहौल का स्पष्ट प्रमाण है, जहां असहमति को दबाने और समाज में वैमनस्य फैलाने के लिए पत्रकारिता का दुरुपयोग किया जा रहा है।घटिया पत्रकारिता: सनसनीखेज खबरों का बाजारघटिया पत्रकारिता, जिसे अक्सर ‘येलो जर्नलिज्म’ या ‘पीत पत्रकारिता’ कहा जाता है, सनसनीखेज और अतिशयोक्तिपूर्ण खबरों पर केंद्रित होती है। इसका उद्देश्य तथ्यों को प्रस्तुत करने के बजाय दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना और टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) बढ़ाना होता है। उदाहरण के लिए, हाल के वर्षों में कुछ समाचार चैनलों ने छोटी-छोटी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, जैसे कि किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी को अनावश्यक रूप से उछालना या सामान्य घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देना। एक उल्लेखनीय उदाहरण 2020 का सुशांत सिंह राजपूत मामला है, जहां कुछ चैनलों ने तथ्यों की जांच किए बिना सनसनीखेज कहानियां बनाईं, जिससे न केवल परिवार को ठेस पहुंची, बल्कि समाज में गलत सूचनाओं का प्रसार हुआ।एक्स पर एक पोस्ट में यूजर @ShubhamShuklaMP
ने इस तरह की घटिया पत्रकारिता की आलोचना करते हुए लिखा कि मीडिया ने एक दलित युवक की हत्या की खबर को इस तरह प्रस्तुत किया कि वह जातीय नफरत को बढ़ावा देने वाला बन गया। यह घटना दर्शाती है कि कैसे कुछ पत्रकार सामाजिक संवेदनशीलता को नजरअंदाज कर केवल सनसनीखेज हेडलाइंस पर ध्यान देते हैं।पत्रकारिता पर सरकारी और कॉरपोरेट दबावभारत में पत्रकारिता का एक और बड़ा खतरा सरकारी और कॉरपोरेट दबाव है। ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024’ के अनुसार, भारत 180 देशों में 159वें स्थान पर है, जो प्रेस स्वतंत्रता की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। पत्रकारों के खिलाफ हिंसा, अभद्र भाषा और हमलों ने इस पेशे को जोखिम भरा बना दिया है। उदाहरण के लिए, कश्मीर में पत्रकारों को जन सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में लिया गया, जो बिना सबूत के लोगों को हिरासत में लेने की अनुमति देता है। इसके अलावा, कुछ समाचार चैनल और अखबार कॉरपोरेट हितों से प्रभावित होकर निष्पक्षता खो रहे हैं।एक्स पर एक यूजर @AnilYadavmedia1
ने लिखा कि नौकरी करने वाले पत्रकार सच्ची पत्रकारिता नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है। यह दर्शाता है कि कॉरपोरेट और सरकारी दबाव के कारण पत्रकार अपनी स्वतंत्रता खो रहे हैं, जिससे नफरती और घटिया पत्रकारिता को बढ़ावा मिलता है।डिजिटल युग में गलत सूचनाओं का प्रसारडिजिटल युग ने पत्रकारिता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है, लेकिन इसके साथ ही गलत सूचनाओं के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन पोर्टल्स ने पत्रकारिता को अधिक सुलभ बनाया, लेकिन साथ ही फर्जी खबरों और नफरत भरे कंटेंट को भी बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए, 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान कुछ डिजिटल पोर्टल्स ने बिना सत्यापन के ऐसी खबरें फैलाईं, जिनमें वायरस के प्रसार के लिए एक विशेष समुदाय को दोषी ठहराया गया। यह न केवल गलत सूचना थी, बल्कि सामाजिक तनाव को बढ़ाने वाला कृत्य भी था।‘मीडियामोर्चा’ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि गलत समाचार प्रकाशित होने पर भारतीय दंड संहिता के तहत कार्रवाई हो सकती है, लेकिन ऐसी कार्रवाइयां कम ही देखने को मिलती हैं। यह स्थिति दर्शाती है कि डिजिटल युग में नफरती और घटिया पत्रकारिता को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र की कमी है।पत्रकारिता के लिए खतरा: विश्वसनीयता का ह्रासनफरती और घटिया पत्रकारिता का सबसे बड़ा नुकसान पत्रकारिता की विश्वसनीयता को हो रहा है। जब समाचार चैनल और अखबार सनसनीखेज और पक्षपातपूर्ण खबरें प्रस्तुत करते हैं, तो जनता का भरोसा टूटता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में 70% से अधिक लोग अब डिजिटल समाचारों पर निर्भर हैं, लेकिन साथ ही गलत सूचनाओं के प्रति भी सतर्क रहते हैं। जब पत्रकारिता का उद्देश्य केवल टीआरपी और क्लिक्स कमाना बन जाता है, तो यह समाज के लिए सूचना का स्रोत होने के बजाय भ्रम का कारण बन जाती है।समाधान और भविष्य की दिशानफरती और घटिया पत्रकारिता से निपटने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, पत्रकारों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझनी होगी। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी जैसे संस्थानों को और सक्रिय भूमिका निभानी होगी। इसके अलावा, पत्रकारिता शिक्षा में नैतिकता और तथ्य-जांच पर जोर देना होगा। स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा देना भी एक समाधान हो सकता है, जैसा कि एक्स पर @ravish_journo
ने सुझाया कि स्वतंत्र पत्रकार सच्ची पत्रकारिता कर सकते हैं।डिजिटल युग में, पत्रकारों को डेटा पत्रकारिता, पर्यावरण पत्रकारिता और खोजी पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए। यह न केवल उनकी विश्वसनीयता बढ़ाएगा, बल्कि समाज के लिए उपयोगी जानकारी भी प्रदान करेगा। जनता को भी गलत सूचनाओं के प्रति जागरूक होना होगा और केवल विश्वसनीय स्रोतों पर भरोसा करना होगा।निष्कर्षभारत में नफरती और घटिया पत्रकारिता ने पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को कमजोर किया है। धार्मिक और जातिगत नफरत को बढ़ावा देने वाली खबरें, सनसनीखेज हेडलाइंस, सरकारी और कॉरपोरेट दबाव, और डिजिटल युग में गलत सूचनाओं का प्रसार इस पेशे के लिए गंभीर खतरा बन चुके हैं। तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर देखें तो, ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स’ में भारत की गिरती रैंकिंग, पत्रकारों पर बढ़ते हमले, और सामाजिक तनाव को बढ़ाने वाली खबरें इस बात का स्पष्ट संकेत हैं। यदि पत्रकारिता को बचाना है, तो पत्रकारों, मीडिया संस्थानों और समाज को मिलकर नैतिकता, निष्पक्षता और सत्य के सिद्धांतों को पुनर्जनन करना होगा। तभी पत्रकारिता अपने गौरवशाली अतीत को फिर से प्राप्त कर सकती है और समाज की दिग्दर्शिका बन सकती है।
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