नीरज निगम मामला: क्या हुआ?
पत्रकार नीरज निगम, जो उत्तर प्रदेश में एक स्थानीय समाचार पत्र के लिए कार्यरत हैं, को कथित तौर पर पुलिस ने बिना किसी ठोस आधार के रातभर थाने में बैठाए रखा। इस घटना की जानकारी राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा परिषद को मिलने के बाद परिषद ने तुरंत कार्रवाई की और स्थानीय पुलिस प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर इस मामले की जांच और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की। परिषद ने इस घटना को प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया और कहा कि यह पत्रकारों के साथ होने वाले उत्पीड़न का एक और उदाहरण है।
ज्ञापन में परिषद ने मांग की कि नीरज निगम के साथ हुए दुर्व्यवहार की निष्पक्ष जांच हो, दोषी पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जाए, और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। परिषद ने यह भी कहा कि पत्रकारों को बिना किसी डर के अपनी जिम्मेदारी निभाने का अधिकार है, और पुलिस का यह रवैया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करता है।
पत्रकारों के अधिकार और पीसीआई एक्ट
भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India, PCI) की स्थापना 1966 में प्रेस काउंसिल एक्ट, 1965 के तहत की गई थी, जिसे 1978 में संशोधित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करना, पत्रकारिता के मानकों को बनाए रखना, और पत्रकारों के अधिकारों की सुरक्षा करना है। पीसीआई एक्ट के तहत परिषद को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:
शिकायतों की जांच: यदि कोई समाचार पत्र, समाचार एजेंसी, या पत्रकार पत्रकारीय नैतिकता का उल्लंघन करता है, तो पीसीआई इसकी जांच कर सकता है और आवश्यक कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है।
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा: पीसीआई को यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि पत्रकार बिना किसी डर या दबाव के अपनी जिम्मेदारी निभा सकें।
मार्गदर्शन और नीति निर्माण: परिषद समय-समय पर पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत जारी करता है, जैसे कि सांप्रदायिक लेखों से बचना और निष्पक्षता बनाए रखना।
हालांकि, पीसीआई एक्ट में कुछ सीमाएं भी हैं। परिषद के पास दंडात्मक शक्तियां सीमित हैं, और यह केवल सलाह देने या निंदा करने तक ही सीमित है। यह पत्रकारों के खिलाफ होने वाली हिंसा या उत्पीड़न को रोकने के लिए कोई प्रत्यक्ष कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकता।
केंद्र और राज्य के कानून: पत्रकारों की सुरक्षा
भारत में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई विशिष्ट केंद्रीय कानून नहीं है। हालांकि, भारतीय दंड संहिता (IPC) और अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) की कुछ धाराएं पत्रकारों के खिलाफ हिंसा या उत्पीड़न के मामलों में लागू हो सकती हैं, जैसे:
धारा 323 (BNS में समकक्ष): स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए सजा।
धारा 506: आपराधिक धमकी के लिए सजा।
धारा 302: हत्या के लिए सजा, जो पत्रकारों की हत्या के मामलों में लागू होती है।
उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामलों में पुलिस अक्सर इन धाराओं के तहत कार्रवाई करती है, लेकिन कई मामलों में जांच धीमी होती है या दोषियों को सजा नहीं मिलती। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के भिंड में पत्रकार अमरकांत चौहान ने रेत माफिया की रिपोर्टिंग के बाद पुलिस द्वारा मारपीट का आरोप लगाया था, जिसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने उन्हें दो महीने की सुरक्षा प्रदान की थी।
पत्रकारों की हत्या और मारपीट: आंकड़े
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (CPJ) की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1 सितंबर 2011 से 31 अगस्त 2021 के बीच भारत में पत्रकारों की हत्या के 20 मामले अनसुलझे रहे, जिसके कारण भारत इस सूची में 12वें स्थान पर था। यह आंकड़ा पत्रकारों की सुरक्षा के लिए भारत में मौजूदा व्यवस्था की विफलता को दर्शाता है।
उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामले विशेष रूप से चिंताजनक हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में पिछले डेढ़ साल में कम से कम 15 पत्रकारों के खिलाफ उनकी खबरों के कारण मुकदमे दर्ज किए गए। हाल के वर्षों में कई पत्रकारों की हत्या और मारपीट की घटनाएं सामने आई हैं, जैसे:
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की 2024 की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों में 161वें स्थान पर रहा, जो पत्रकारों की खराब स्थिति को दर्शाता है।
पत्रकारों की दशा-दुर्दशा: सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास
पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कुछ सरकारी और गैर-सरकारी पहलें हुई हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित रहा है:
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया: पीसीआई ने पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कई बार मार्गदर्शक सिद्धांत जारी किए हैं। 2011 में, परिषद ने पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक छह सदस्यीय उपसमिति गठित की थी।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC): पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामलों में NHRC में शिकायत दर्ज की जा सकती है, जैसा कि भिंड मामले में हुआ।
गैर-सरकारी संगठन: कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स और रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स जैसे संगठन पत्रकारों की सुरक्षा के लिए काम करते हैं और समय-समय पर भारत में पत्रकारों की स्थिति पर रिपोर्ट जारी करते हैं।
राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा परिषद: यह संगठन पत्रकारों के हितों के लिए काम करता है और नीरज निगम मामले में ज्ञापन सौंपने जैसे कदम उठाता है।
हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद, पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कानून या नीति नहीं बनी है। कई मामलों में, पुलिस और प्रशासन पत्रकारों को निशाना बनाने में संलिप्त पाए गए हैं, जिससे उनकी स्थिति और असुरक्षित हो जाती है।
दोषी पुलिसकर्मियों के लिए सजा
पुलिसकर्मियों द्वारा पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार के मामलों में सजा का प्रावधान मौजूद है, लेकिन इसका कार्यान्वयन कमजोर है। उदाहरण के लिए, 2016 में पुलिसकर्मियों द्वारा पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार के बाद मीडियाकर्मियों ने एसपी को ज्ञापन सौंपा, जिसके बाद दो पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर किया गया। हालांकि, ऐसे मामलों में सजा या निलंबन अक्सर प्रतीकात्मक होते हैं, और स्थायी समाधान की कमी रहती है।
निष्कर्ष
पत्रकार नीरज निगम के साथ हुई घटना ने एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत को रेखांकित किया है। पीसीआई एक्ट और मौजूदा कानून पत्रकारों को कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करते हैं, लेकिन इनमें दंडात्मक शक्तियों की कमी और कार्यान्वयन की कमजोरी पत्रकारों की दशा को और बदतर बनाती है। उत्तर प्रदेश और पूरे देश में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न के बढ़ते मामलों को देखते हुए, एक विशिष्ट पत्रकार सुरक्षा कानून और सख्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है। राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा परिषद जैसे संगठन इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, लेकिन जब तक सरकार और समाज पत्रकारों की भूमिका को गंभीरता से नहीं लेते, तब तक उनकी दशा में सुधार की उम्मीद कम है।
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